इतिहास गवाह है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश की महिला क्रांतिकारियों ने भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाया. उन महिला क्रांतिकारियों में रानी लक्ष्मीबाई, अरुणा असफ अली और सावित्रीबाई फूले जैसी महिला जाबांजों का नाम जुबां पर आ ही जाता है.
इसी कड़ी में बेगम हज़रत महल का नाम भी आता है, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ लुटाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ीं.
तो आईए जानते हैं कि कैसे उन्होंने अपनी वीरता और कुशल नेतृत्व से अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिए-
मोहम्मद खानम से ‘बेगम हज़रत महल’
अवध की बेगम कही जाने वाली हज़रत महल ने 1820 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में अपनी आँखे खोलीं. इनके बचपन का नाम मोहम्मद खानम था. कहते हैं कि इनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था, जिससे इनको जीवन में कई बड़े उतार-चढ़ाव देखने को मिले.
असल में उनके पिता जमींदार के यहां गुलाम थे. इस लिहाज से घर के स्थिति ठीक नहीं थी. आगे हालत ज्यादा बिगड़ी तो उनके माता-पिता ने उन्हें बेच दिया. इसके बाद इनको लखनऊ के शाही हरम में खावासिन के तौर पर शामिल किया गया
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चूंकि, वह बहुत ही सुन्दर और हुनरमंद थी, इसलिए उन्होंने जल्द ही शाही हरम में अपनी एक खास पहचान बना ली. बाद में, जब नवाब वाजिद अली शाह की नज़र उन पर पड़ी, तो उसने उनको अपने शाही हरम में परी समूह (चुनिन्दा महिलाओं का एक समूह, जिसे नवाब ने परी नाम दिया था) में शामिल कर दिया. इसके बाद वह ‘महक परी’ के नाम से जानी गईं.
आगे के सफर में महक परी के हुस्न ने नवाब वाजिद अली शाह पर ऐसा जादू किया कि वो इनके दीवाने हो गए थे. इश्क का ये आलम था कि उन्होंने उन पर कई कसीदे भी लिख डाले. ऐसे में वह पहले नवाब की बेगम बनी फिर उनके बच्चे की मां.
पिता बनने की खबर जैसे ही नवाब वाजिद अली शाह को पता चली, तो उसने उनको ‘इफ्तिखार-उन-निसा’ का लकब दे दिया. अगली कड़ी में, जब बेगम ने अवध के वारिस ‘बिरजिस कद्र’ को जन्म दिया, तो उनको ‘बेगम हज़रत महल’ का नाम दिया गया. आगे वो इसी नाम से मशहूर भी हुईं.
पति के बंदी बनाए जाने पर सभांली अवध की गद्दी
नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बनने तक के सफ़र में बेगम हज़रत महल की जिंदगी में कई मोड़ आए.
एक ऐसा वक़्त भी आया, जब 1856 में नवाब ने ब्रिटिश हुकूमत के अधीन सिद्धांतों को मानने से इंकार कर दिया. इस कारण अंग्रेजों ने अवध के राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज कर बंदी बना लिया.
ऐसी स्थिति में बेगम ने अवध राज्य के कार्यभार को सभांलने का फैसला किया. साथ ही अपने पति के बंदी बनाए जाने पर हज़रत महल ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ चिंगारी लगाना शुरू कर दिया.
नजीता यह रहा कि 1857 की क्रांति से पहले ही अवध राज्य में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारजगी का दौर शुरू हो चुका था.
अगली कड़ी में 1857 की स्वतंत्रता संग्राम छिड़ने पर बेगम हज़रत महल ने अपने 12 साल के बेटे बिरजिस कद्र को अवध की गद्दी पर बैठा दिया. ऐसा इसलिए क्योंकि वह पूरी तरह से अंग्रेजों से दो-दो हाथ करना चाहती थीं.
ऐसा माना जाता है कि हिदुस्तान की पहली जंगे आज़ादी में लखनऊ का नेतृत्व हज़रत महल ने ही किया था.
‘महिला सैनिक दल’ था उनकी असल ताकत
अपने बेटे की ताजपोशी के बाद हज़रत महल ने 1857 की क्रांति में अपनी साहस और बहादुरी का परिचय दिया. उन्होंने अवध राज्य के नागरिकों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया.
ऐसा माना जाता है कि बेगम हज़रत महल हिन्दू मुस्लिम में भेदभाव नहीं करती थीं. उन्होंने सभी धर्मों के सैनिकों को समान अधिकार दिया था.
कहा जाता है कि बेगम हज़रत महल में गजब का कुशल नेतृत्व था, जिसके कारण अवध के जमींदार, किसान और सैनिक सभी उनके अधीन हो गए. इसके साथ ही इनको इस स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहिब का भी बहुत साथ मिला, जोकि रानी लक्ष्मीबाई के दोस्तों में से एक थे.
यही नहीं, कहा तो यह भी जाता है कि बेगम हज़रत महल अपनी सेनाओं के मनोबल को बढ़ाने के लिए मैदान में भी अपने सिपाहियों का नेतृत्व करतीं और अपनी तलवार से अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करती थीं. आलमबाग की लड़ाई में तो वह हाथी पर सवार होकर दुश्मन से लड़ने के लिए गईं थीं.
गौर करने वाली बात तो यह है कि इनकी सेन में रानी लक्ष्मीबाई की तरह महिला सैनिक दल भी शामिल था.
छोड़ना पड़ा अवध का सिंहासन, मगर…
अवध की सेनाओं का कुशल नेतृत्व करते हुए वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती रहीं.
उनकी सेना ने चिनहट और दिलकुशा में हुई लड़ाई में अंग्रेजों को लोहे के चना चबवाने पर मजबूर कर दिया था. लखनऊ के विद्रोह ने तो अवध के कई क्षेत्रों जैसे, सीतापुर, गोंडा, बहराइच, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सलोन आदि को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया था.
ऐसा माना जाता है कि 1857 में उनको कई राजाओं का साथ मिला. इनमें राजा जयलाल, राजा मानसिंह, आदि शामिल थे. इन सबके साथ मिलकर हज़रत महल ने अंग्रेजों को लखनऊ रेजीडेंसी में सिर छुपाने के लिए मजबूर कर दिया था.
1857 में इनकी सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे लम्बी लड़ाई लड़ी थी. हालांकि, जल्द ही अंग्रेजों ने अपने बेहतर युद्ध हथियार की बदौलत लखनऊ पर कब्ज़ा कर लिया, जिसके कारण बेगम हज़रत महल को लखनऊ छोड़ना पड़ा था.
दिलचस्प बात तो यह थी कि अपना सिंहासन छोड़ने के बाद भी हज़रत महल के सीने में क्रांति की आग ठंडी नहीं हुई थी. लखनऊ को छोड़ने के बाद, उन्होंने फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह के साथ मिलकर अंग्रेजीं हुकूमत के खिलाफ अपने विद्रोह को जारी रखे. अवध के जंगलों को उन्होंने अपना ठिकाना बनाया और गुरिल्ला युद्ध नीति से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया!
अंतिम पलों में नेपाल बना उनका ठिकाना
एक वक्त बाद अंग्रेजों के द्वारा दिल्ली पर कब्ज़ा हो चुका था. 1857 की ग़दर का नेतृत्व करने वाले बादशाह बहादुर शाह जफ़र को बंदी बना लिया गया. इसी के साथ अंग्रेजों का लखनऊ पर भी कब्ज़ा हो गया, जिसके चलते बेगम हज़रत महल अपने बेटे के साथ नेपाल चली गईं.
वहां उनके स्वाभिमान से प्रेरित होकर नेपाल के राजा राणा जंगबहादुर ने उन्हें रहने की जगह दी थी. कहते हैं इसके बाद वो नेपाल के काठमांडू में अपना सादा जीवन बिताने लगी.
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